Wednesday, May 29, 2019

तो क्या आप दूसरे देशों की वेबसाइटें नहीं देख सकेंगे?

ये दुनिया तमाम देशों में बंटी है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सभी देश इस बात पर एकमत हैं कि उन्हें एक-दूसरे की सीमाओं का सम्मान करना चाहिए.

इसके उलट इंटरनेट की दुनिया सरहदों से परे है. किसी अमरीकी वेबसाइट को भारत में आराम से देखा और इस्तेमाल किया जा सकता है. यही वजह है कि आज फ़ेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों का दुनिया भर में राज है.

पर, बहुत से देश ऐसे हैं जो इंटरनेट को भी सरहदों के दायरे में बांधना चाहते हैं. 2010 में सीरिया और रूस जैसे कई देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील की थी कि जिस तरह देशों की सीमाओं और उनकी संप्रभुता को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिली है, ठीक उसी तरह डिजिटल दुनिया में भी सरहदों की लक़ीरें खींची जानी चाहिए. हदबंदी होनी चाहिए.

इंटरेनट सलाहकार हैस्केल शार्प उस वक़्त बहुराष्ट्रीय तकनीकी कंपनी सिस्को में काम करते थे. शार्प कहते हैं कि, 'संयुक्त राष्ट्र के पास जाने वाले ये देश चाहते थे कि सबके लिए खुली और सरहदों से परे इंटरनेट की दुनिया में भी हदबंदी हो. हर देश की पहुंच में इंटरनेट का ख़ास हिस्सा ही हो.'

उस वक़्त संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस अपील को ख़ारिज कर दिया था. क्योंकि तमाम देश नहीं चाहते थे कि इंटरनेट की आज़ादी पर किसी तरह का पहरा हो. किसी सरकार का इस पर शिकंजा हो.

इस बात को क़रीब एक दशक बीत चले हैं. जो देश इंटरनेट में सीमाओं की लकीरें खींचना चाहते थे, वो इस झटके के बाद उबरे हैं और अपने-अपने तरीक़े से इंटरनेट को क़ाबू में करने में जुटे हैं.

मसलन, रूस ने अपने यहां के इंटरनेट ग्राहकों की हिफ़ाज़त के नाम पर कई क़ानून बनाए हैं. वो इंटरनेट के ज़रिए देश में आने और रूस से बाहर जाने वाली जानकारियों को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है.

इंटरनेट के अमरीकी एक्सपर्ट रॉबर्ट मोर्गस कहते हैं कि, 'रूस इंटरनेट पर अपनी सरकार का शिकंजा कसना चाहता है. वो चाहता है कि उसके नागरिक जो इंटरनेट देखें-सुनें या इस्तेमाल करें, वो उसकी जानकारी में हो.'

रूस ही क्यों, बहुत से देश हैं, जो इंटरनेट पर किसी न किसी तरह का नियंत्रण चाहते हैं. कभी राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर, तो कभी अपने अवाम को बाहरी दुनिया के ख़तरों से दूर रखने के नाम पर. रोज़-ब-रोज़ इंटरनेट पर नई पाबंदियां आयद की जा रही हैं. आज कई देश मिलकर भी इंटरनेट के बेलगाम घोड़े को क़ाबू में करने मे जुटे हैं.

असल में रूस, ईरान और सीरिया जैसे बहुत से देशों को इंटरनेट के पश्चिमी देशों के नियंत्रण में होने से ऐतराज़ है. इन देशों को पश्चिमी देशों के जीवनमू्ल्यों से परेशानी है. उन्हें लगता है कि इंटरनेट के ज़रिए उनके देशवासियों को पश्चिमी देश बरगला सकते हैं. प्रभावित कर सकते हैं. क्योंकि इंटरनेट की दुनिया इतनी खुली है कि कोई किसी को कुछ भी भेज सकता है. या किसी से कुछ भी ले सकता है.

इंटरनेट दो क़ायदों से संचालित होता है. एक टीसीपी यानी ट्रांसमिशन कंट्रोल प्रोटोकॉल और दूसरा आईपी यानी इंटरनेट प्रोटोकॉल. इसके तहत कोई भी जानकारी इंटरनेट पर बेरोक-टोक भेजी या हासिल की जा सकती है. ये सरहदों के दायरों से परे है. इंटरनेट पर बस आईपी या टीसीपी एड्रेस होना चाहिए.

रूस जैसे देश चाहते हैं कि सूचनाओं के इस बेरोक-टोक आदान-प्रदान पर रोक लगे. सरकारों के पास ये अख़्तियार हो कि वो एक जगह से दूसरी जगह भेजे जाने वाले डेटा को नियंत्रित कर सकें.

कुछ लोग इसे रूस, सीरिया या ईरान की तानाशाही कहकर ख़ारिज कर सकते हैं. पर, कई बार सरकारों की चिंताएं वाजिब भी होती हैं. इंटरनेट के ज़रिए उनकी सामरिक ताक़त को निशाना बनाया जा सकता है. या फिर बिजली और संचार सेवाओं को ठप किया जा सकता है. फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाकर उत्पात मचाया जा सकता है.

रॉबर्ट मोर्गस कहते हैं कि, 'रूस और चीन इस बात को औरों से पहले समझ गए कि इंटरनेट पर बेरोक-टोक संचार नुक़सानदेह हो सकता है. ख़ास तौर पर सियासी इस्तेमाल के लिए उनके नागरिकों को निशाना बनाया जा सकता है. या बैंकिंग सिस्टम को निशाने पर लिया जा सकता है.'

पर, रूसी मूल के ब्रिटिश विद्वान लिंकन पिगमैन कहते हैं कि रूस और चीन की सरकारें अपने नागरिकों की हिफ़ाज़त करने के बजाय उन्हें नियंत्रित करने को लेकर ज़्यादा फ़िक्रमंद हैं.

रूस और चीन ने 2011-2012 में ही इंटरनेट की हदबंदी की बातें शुरू कर दी थीं. उस वक़्त रूस में दो साल चलने वाले विरोध-प्रदर्शन हो रहे थे. कई देशों में इंटरनेट की वजह से बग़ावत की चिंगारियां शोलों में तब्दील हो गई थीं. रूस चाहता था कि उसके नागरिकों को बग़ावत के लिए भड़काने वाले संदेश इंटरनेट के ज़रिए न पहुंचें.

दिक़्क़त ये थी कि रूस सूचनाओं के बेरोक-टोक आदान-प्रदान को रोक नहीं सकता था. इंटरनेट की सुविधा कुछ केबल और कुछ सैटेलाइट की मदद से तमाम देशों तक पहुंचती है. मसलन, उत्तर कोरिया तक इंटरनेट पहुंचाने के लिए एक केबल बिछी है. यहां स्विच बंद किया और पूरे उत्तर कोरिया में इंटरनेट सेवा बंद. पर, रूस जैसे देश के लिए ये मुमकिन नहीं.

आज रूस की अर्थव्यवस्था इंटरनेट की वजह से बाक़ी दुनिया से जुड़ी है. पहले तो ये मुमकिन ही नहीं, पर फिर भी अगर रूस ने उत्तर कोरिया की तरह इंटरनेट के सभी तार काट दिए, तो उसकी अर्थव्यवस्था भरभरा कर गिर जाएगी.

इसीलिए रूस जैसे देश चाहते हैं कि आईपी एड्रेस या ट्रांसमिशन कंट्रोल प्रोटोकॉल पर उनका नियंत्रण हो.

चीन इस मामले में सबसे आगे है. इंटरनेट पर शिकंजे के लिए चीन ने गोल्डन शील्ड नाम की व्यवस्था बना रखी है. इसे ग्रेट फायरवॉल ऑफ़ चाइना कहते हैं. इसके ज़रिए चीन कई वेबसाइट या आईपी एड्रेस को अपने यहां रोक सकता है.

पर, चीन की व्यवस्था रूस में लागू नहीं हो सकती. इसमें तकनीकी अड़चनें हैं. चीन ने अपने यहां इंटरनेट का पूरा जाल अपनी कंपनियों के ज़रिए फैलाया है. उसका इस पर पूरा नियंत्रण है. चीन में इंटरनेट का प्रवाह आने-जाने के लिए कुछ ख़ास ठिकाने ही हैं, जिन पर चीन की निगाह भी है औऱ नियंत्रण भी.

इसके उलट रूस में इंटरनेट की सेवाएं उस दौर में फैली थीं, जब रूस ने खुले दिल से इंटरनेट का स्वागत किया था. आज पूरे रूस में इंटरनेट का बुनियादी ढांचा विकसित हो चुका है. पर, इस पर रूस का कोई ज़ोर नहीं.

Monday, May 13, 2019

صليب السلام في ولاية ميريلاند الأمريكية يثير جدلا بشأن الفصل بين الكنيسة والدولة

تدخلت المحكمة العليا الأمريكية لحل نزاع حول موقع صليب يبلغ ارتفاعه 12 مترا في تقاطع طرق بولاية ميريلاند، بعد أن تسبب في إثارة جدل واسع حول الرموز الدينية في الحياة العامة.

ربما لم تسمع الكثير عن النزاع حول صليب السلام Peace Cross، وهو صليب مصنوع من حجر الصوان طوله 12 مترا (40 قدما)، أقيم في منتصف تقاطع طريق مزدحم في ولاية ميريلاند.

ولأن الموقف معقد وربما يحتاج إلى مساعدة محام وعالم دين (لاهوت) لفهم التداعيات المحتملة للنزاع حول الصليب، الذي يعد نصبا تذكاريا يعود للحرب العالمية الأولى وعمره 96 عاما، فقد وصل هذا النزاع الآن إلى المحكمة العليا.

ويرغب ثلاثة من سكان ميريلاند وجمعية الإنسانية الأمريكية، وهي منظمة أهلية غير هادفة للربح تتبنى الأفكار العلمانية، في إبعاد النصب التذكاري من الأرض العامة.

وحجتهم في هذا الطلب هو أن وجود الصليب يتعارض مع مبدأ (الفصل بين الدين والدولة) المنصوص عليه في التعديل الأول لدستور الولايات المتحدة، ما يسمى بند التأسيس.

وينص التعديل الأول من الدستور الأمريكي "لا يُصدر الكونغرس أي قانون خاص تتبناه الدولة ينتهج دينا من الأديان أو يمنع حرية ممارسته".

يسيطر صليب السلام على المشهد تماما ويكون في استقبال كل من يقترب من بلدة بلادنسبرغ في ميريلاند.

يقول روي سبيكهاردت، الرئيس التنفيذي لجمعية الإنسانية الأمريكية: "يبدو الأمر وكأنك تدخل مدينة مسيحية تماما".

ويضيف :"إنه (الصليب) ضخم للغاية بحيث يمكن رؤيته من مسافة نصف ميل. ويتسبب فقط في شعور غريب، القاعدة مغطاة بالشجيرات، لذلك يجب أن تكون جريئا بما يكفي لإلقاء نظرة فاحصة وأنت تعبر الطريق السريع، لتدرك أخيرا أنه نصب تذكاري للحرب."

ولكن هناك أكثر أهمية من الصليب نفسه. فبعد سماع الحجج في القضية، يمكن أن يؤثر قرار المحكمة العليا المقرر في يونيو/تموز المقبل، على جميع التفسيرات القضائية المستقبلية لمبدأ التأسيس.

تزداد المخاطر بسبب مخاوف البعض من أن إدارة الرئيس دونالد ترامب، تأخذ البلاد في اتجاه ديني أكثر تشددا.

فقد أعلن الرئيس ترامب، في اليوم الوطني للصلاة 2 مايو/آيار، عن قاعدة جديدة تسمح للعاملين في مجال الرعاية الصحية برفض أداء الخدمات التي تتعارض مع معتقداتهم الدينية، وقد أشاد البعض بهذه الخطوة، بينما أدانها آخرون.

"هذه هي أخطر محاولة لإدارة ترامب حتى الآن لتحويل الحرية الدينية إلى سلاح"، كما تقول راشيل ليزر، الرئيسة والمديرة التنفيذية لمؤسسة أمريكيون متحدون لفصل الكنيسة عن الدولة.

نتيجة لذلك، تحول صليب السلام من مجرد مصدر نزاع حول حركة المرور على مسافة 30 دقيقة فقط بالسيارة من واشنطن، إلى مصدر توترات متزايدة حول مبدأ الحرية الدينية بالنسبة للحركات العلمانية التقدمية التي على خلاف متزايد مع الدين التقليدي.

خلال العقود القليلة الماضية، هيمن ما يسمى (اختبار ليمون)، نسبة إلى الناشط ألتون ليمون، على التفسير القانوني أو الفقه القانوني الخاص بالنص الدستوري (مبدأ التأسيس)، وجاء هذا المسمى من قضية سابقة في المحكمة العليا،حددت الاتجاه العام للحكم على الإجراءات الحكومية ووصفها بأنها غير دستورية إذا كانت تفتقر إلى غرض علماني وكان لها تأثير أساسي في دعم الدين أو تؤدي للتدخل المفرط للحكومة في ممارسة الشعائر الدينية.

لا يوجد تأييد كبير لاختبار ليمون، خاصة في المحكمة العليا، حيث تم وصفه بأنه "مخز" وكذلك "غير متماسك" و"فوضوي".

وعلق رئيس المحكمة العليا الراحل أنتونين سكاليا، على اختبار ليمون بأنه يشبه "الوحش في فيلم الرعب في وقت متأخر من الليل الذي يخرج من قبره دائما بعد قتله ودفنه".

يقول لوك غودريتش، نائب رئيس وكبير مستشاري صندوق بيكيت للحرية الدينية، وهي مؤسسة تهتم بممارسة القانون العام وتساعد في القضية، "إن أربعة قضاة آخرين على الأقل، ربما يمثلون أغلبية حاسمة في قرار لجنة القضاة وتضم تسعة منهم، أشاروا إلى أن الوقت قد حان لتغيير الفقه القانوني الحالي بطريقة مهمة".

ويوضح روي سبيكهاردت، "لقد حضرت حوالي عشر مرافعات شفهية في هذه الأنواع من قضايا المحكمة العليا، ولم أر القضاة مترددين مثلما هو الحال هنا".

من السهل التعاطف مع مأزق القضاة، لأن المشهد الديني المتغير في الولايات المتحدة يجعلهم عالقين بين المطرقة والسندان.

يقول غودريتش: "تُظهر الأبحاث أن القليل من الناس يكشفون عن انتمائهم الديني وعدد أقل يحضر قداسا، لذا فمن المؤكد أن هناك مستوى مستمرا من انتشار الفكر العلماني".

"لكن في الوقت نفسه، هناك تنوع ديني متزايد، حيث يرتبط عدد أكبر من الأشخاص بأقليات دينية مثل الهندوسية والبوذية والسيخ، وكل ذلك يعقد مهمة حماية الحريات الدينية في ظل وجود فرصة أكبر للصراع".

على مر السنين، غالبا ما انتهت النزاعات حول الحرية الدينية إلى المحاكم . في ولاية تينيسي، مُنعت جماعة إسلامية من الحصول على تصريح لبناء مسجد في مدينة مورفريسبورو، الواقعة في الحزام الإنجيلي وتُشكل فيه البروتستانتية المحافظة جزءا رئيسيا من الثقافة. وتمت تسوية القضية في عام 2014 في محكمة المقاطعة الفيدرالية لصالح بناء المسجد.

قاضي أمريكي يوقف العمل بقانون يتيح الرفض الديني لزواج المثليين في مسيسيبي

ومن أبرز القضايا الدينية أيضا ما قام به خباز في كولورادو، حين رفض تجهيز كعكة زفاف لزوجين مثليين لأنهما يخالفان مبادئه المسيحية، عام 2017، وقضت المحكمة العليا لصالح الخباز. وبعد ذلك واجه الخباز دعوى قضائية أخرى لرفضه تجهيز كعكة لشخص أراد الاحتفال بالذكرى السنوية لتغيير جنسه.

ومؤخرا قرر اتحاد الحريات المدنية الأمريكي (ACLU) مقاضاة ولاية ميشيغان لاتفاقها في عملية تبني الأطفال مع مجموعات دينية لا توافق على وضع الأطفال في منازل الأزواج المثليين من نفس الجنس أو من هم غير متزوجين. ووافقت الولاية، الأسبوع الماضي، على تسوية القضية مع اتحاد الحريات المدنية.

يقول غودريتش "هناك بعدان لكل هذا بُعد قانوني والآخر ثقافي اجتماعي". "من الناحية الاجتماعية الثقافية هناك عداء متزايد تجاه المعتقدات التقليدية، والحريات الدينية تصبح أكثر هشاشة. لكن من الناحية القانونية، حتى الآن تميل المحاكم إلى اتخاذ قرار لصالح الحريات الدينية".

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